Friday, 24 March 2023

Gyan ka Bhandar

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मेहनत का फल का महत्व  Mehnat ka phal mahatva story essay in hindi

एक नगर में प्रतिष्ठित व्यापारी रहते थे जिन्हें बहुत समय बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी.उसका नाम चंद्रकांत रखा गया. चंद्रकांत घर में सभी का दुलारा था. अतिकठिनाई एवं लंबे समय इंतजार के बाद संतान का सुख मिलने पर, घर के प्रत्येक व्यक्ति के मन में व्यापारी के पुत्र चंद्रकांत के प्रति विशेष लाड़ प्यार था जिसने चंद्रकांत को बहुत बिगाड़ दिया था. घर में किसी भी बात का अभाव नहीं था. चंद्रकांत की मांग से पहले ही उसकी सभी इच्छाये पूरी कर दी जाती थी. शायद इसी के कारण चंद्रकांत को ना सुनने की आदत नहीं थी और ना ही मेहनत के महत्व का आभास था . चंद्रकांत ने जीवन में कभी अभाव नहीं देखा था इसलिए उसका नजरिया जीवन के प्रति बहुत अलग था और वहीं व्यापारी ने कड़ी मेहनत से अपना व्यापार बनाया था.ढलती उम्र के साथ व्यापारी को अपने कारोबार के प्रति चिंता होने लगी थी. व्यापारी को चंद्रकांत के व्यवहार से प्रत्यक्ष था कि उसके पुत्र को मेहनत के फल का महत्व नहीं पता. उसे आभास हो चूका था कि उसके लाड प्यार ने चंद्रकांत को जीवन की वास्तविक्ता और जीवन में मेहनत के महत्व से बहुत दूर कर दिया हैं. गहन चिंतन के बाद व्यापारी ने निश्चय किया कि वो चन्द्रकांत को मेहनत के फल का महत्व, स्वयं सिखायेगा. चाहे उसके लिए उसे कठोर ही क्यूँ न बनना पड़े .

व्यापारी ने चंद्रकांत को अपने पास बुलाया और बहुत ही तीखे स्वर में उससे बात की. उसने कहा कि तुम्हारा मेरे परिवार में कोई अस्तित्व नही हैं, तुमने मेरे कारोबार में कोई योगदान नहीं दिया और इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी मेहनत से धन कमाओं, तब ही तुम्हे तुम्हारे धन के मुताबिक दो वक्त का खाना दिया जायेगा. यह सुनकर चन्द्रकांत को ज्यादा कोई फर्क नहीं पड़ा, उसने उसे क्षण भर का गुस्सा समझ लिया लेकिन व्यापारी ने भी ठान रखी थी. उसने घर के सभी सदस्यों को आदेश दिया कि कोई चन्द्रकांत की मदद नहीं करेगा और नाही उसे बिना धन के भोजन दिया जायेगा. चन्द्रकांत से सभी बहुत प्यार करते थे जिसका उसने बहुत फायदा उठाया. वो रोज किसी न किसी के पास जाकर धन मांग लाता और अपने पिता को दे देता. और व्यापारी उसे उन पैसो को कुँए में फेकने का बोलता जिसे चंद्रकांत बिना किसी अड़चन के फेक आता और उसे रोज भोजन मिल जाता. ऐसा कई दिनों तक चलता रहा लेकिन अब घर के लोगो को रोज-रोज धन देना भारी पड़ने लगा. सभी उससे अपनी कन्नी काटने लगे, जिस कारण चंद्रकांत को मिलने वाला धन कम होने लगा और उस धन के हिसाब से उसका भोजन भी कम होने लगा. एक दिन चन्द्रकांत को किसी ने धन नहीं दिया और उसे अपनी भूख को शांत करने के लिए गाँव में जाकर कार्य करना पड़ा. उस दिन वो बहुत देर से थका हारा व्यापारी के पास पहुँचा और धन देकर भोजन माँगा. रोज के अनुसार व्यापारी ने उसे वो धन कुँए में फेंकने का आदेश दिया जिसे इस बार चंद्रकांत सहजता से स्वीकार नहीं कर पाया और उसने पलट कर जवाब दिया – पिताजी मैं इतनी मेहनत करके, पसीना बहाकर इस धन को लाया और आपने मुझे एक क्षण में इसे कुँए में फेंकने कह दिया. यह सुनकर व्यापारी समझ गया कि आज चंद्रकांत को मेहनत के फल का महत्व समझ आ गया हैं. व्यापारी भलीभांति जानता था कि उसके परिवार वाले चन्द्रकांत की मदद कर रहे हैं, तब ही चंद्रकांत इतनी आसानी से धन कुँए में डाल आता था लेकिन उसे पता था, एक न एक दिन सभी परिवारजन चन्द्रकांत से कन्नी काट लेंगे,उस दिन चन्द्रकांत के पास कोई विकल्प शेष नहीं होगा. व्यापारी ने चन्द्रकांत को गले लगा लिया और अपना सारा कारोबार उसे सोंप दिया.                                                                                                                शिक्षा                                                                                                                                    आज के समय में उच्च वर्ग के परिवारों की संतानों को मेहनत के फल का महत्व पता नहीं होता और ऐसे में यह दायित्व उनके माता पिता का होता हैं कि वो अपने बच्चो को जीवन की वास्तविक्ता से अवगत कराये. लक्ष्मी उसी घर में आती हैं जहाँ उसका सम्मान होता हैं .


मेहनत ही एक ऐसा हथियार हैं जो मनुष्य को किसी भी परिस्थिती से बाहर ला सकता हैं. व्यापारी के पास इतना धन तो था कि चंद्रकांत और उसकी आने वाली पीढ़ी बिना किसी मेहनत के जीवन आसानी से निकाल लेते लेकिन अगर आज व्यापारी अपने पुत्र को मेहनत का महत्व नहीं बताता तो एक न एक दिन व्यापारी की आने वाली पीढ़ी व्यापारी को कोसती.




Wednesday, 22 March 2023

Gyan ka Bhandar

https://blogarvindkumaryadav7380.blogspot.com/2023/03/gyan-ka-bhandar.html अहिल्या के उद्धार की कथा

    रामायण की कई रोचक कथाओं का समावेश किया गया हैं उन में से एक हैं देवी अहिल्या के उद्धार की कहानी जो आज के समय से जोड़कर देखिये तब आपको भी समझ आएगा कि इतिहास में भी बलात्कारियों को युगों युगों तक सजा का भुगतान करना पड़ा हैं फिर वो देव ही क्यूँ ना हो |                                  

                   अहिल्या के उद्धार की कथा

                   Ahilya Uddhar Katha

    माता अहिल्या जिन्हें स्वयं ब्रह्म देव ने बनाया था इनकी काया बहुत सुंदर थी इन्हें वरदान था कि इनका योवन सदा बना रहेगा | इनकी सुन्दरता के आगे स्वर्ग की अप्सराये भी कुछ नहीं थी | इन्हें पाने की सभी देवताओं की इच्छा थी | यह ब्रह्मा जी की मानस पुत्री थी अतः ब्रह्म देव ने एक परीक्षा रखी जिसकी शर्त थी जो भी परीक्षा का विजेता होगा उसी से अहिल्या का विवाह होगा | अंत में यह परीक्षा महर्षि गौतम ने जीती और विधीपूर्वक अहिल्या से विवाह किया |                                         

    अहिल्या की सुन्दरता पर स्वयं इंद्र देव मोहित थे और एक दिन वो प्रेमवासना कामना के साथ अहिल्या से मिलने पृथ्वी लोक आये | लेकिन गौतम ऋषि के होते यह संभव नहीं था | तब इंद्र एवं चन्द्र देव ने एक युक्ति निकाली | महर्षि गौतम ब्रह्म काल में गंगा स्नान करते थे | इसी बात का लाभ उठाते हुये इंद्र और चंद्र ने अपनी मायावी विद्या का प्रयोग किया और चंद्र ने अर्धरात्रि को मुर्गे की बांग दी जिससे महर्षि गौतम भ्रमित हो गये और अर्ध रात्रि को ब्रह्म काल समझ गंगा तट स्नान के लिये निकल पड़े|.                                                                                                                    महर्षि के जाते ही इंद्र ने महर्षि गौतम का वेश धारण कर कुटिया में प्रवेश किया और चंद्र ने बाहर रहकर कुटिया की पहरेदारी की |                                                                                                         दूसरी तरफ जब गौतम गंगा घाट पहुँचे, तब उन्हें कुछ अलग आभास हुआ और उन्हें समय पर संदेह हुआ | तब गंगा मैया ने प्रकट होकर गौतम ऋषि को बताया कि यह इंद्र का रचा माया जाल हैं, वो अपनी गलत नियत लिये अहिल्या के साथ कु कृत्य की लालसा से पृथ्वी लोक पर आया हैं | यह सुनते ही गौतम ऋषि क्रोध में भर गये और तेजी से कुटिया की तरफ लौटे | उन्होंने चंद्र को पहरेदारी करते देखा तो उसे शाप दिया उस पर हमेशा राहू की कु दृष्टि रहेगी | और उस पर अपना कमंडल मारा | तब ही से चन्द्र पर दाग हैं |


    उधर इंद्र को भी महर्षि के वापस आने का आभास हो गया और वो भागने लगा | गौतम ऋषि ने उसे भी श्राप दिया और उसे नपुंसक होने एवम अखंड भाग होने का शाप दिया | साथ ही यह भी कहा कि कभी इंद्र को सम्मान की नजरो से नहीं देखा जायेगा और ना ही उसकी पूजा होगी | और आज तक इंद्र को कभी सम्मान प्राप्त नहीं हुआ                                                                                                 जब इंद्र भागने के लिये अपने मूल रूप में आया, तब अहिल्या को सत्य ज्ञात हुआ लेकिन अनहोनी हो चुकी थी जिसमे अहिल्या की अधिक गलती ना थी, उसके साथ तो बहुत बड़ा छल हुआ था लेकिन महर्षि गौतम अत्यंत क्रोधित थे और उन्होंने अहिल्या को अनंत समय के लिये एक शिला में बदल जाने का शाप दे दिया | जब महर्षि का क्रोध शांत हुआ, तब उन्हें अहसास हुआ कि इस सबमे अहिल्या की उतनी गलती नहीं थी परन्तु वे अपना शाप वापस नहीं ले सकते थे |अपने इस शाप से महर्षि गौतम भी बहुत दुखी थे तब उन्होंने अहिल्या की शिला से कहा – जिस दिन तुम्हारी शिला पर किसी दिव्य आत्मा के चरणों की धूल स्पर्श होगी, उस दिन तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी और तुम अपने पूर्वस्वरूप में पुनः लौट आओगी | इतना कह कर दुखी गौतम ऋषि हिमालय चले गये और जनकपुरी की कुटिया में अहिल्या की शिला युगों- युगों तक अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा में कष्ट भोग रही थी |                                                                                                                                             युगों बीतने के बाद जब महर्षि विश्वामित्र राक्षसी ताड़का के वध के लिये अयोध्या से प्रभु राम और लक्ष्मण को लेकर आये तब ताड़का वध के बाद वे यज्ञ के लिये आगे बढ़ रहे थे तब प्रभु की नजर उस विरान कुटिया पर पड़ी और वे वहाँ रुक गये और उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से पूछा – हे गुरुवर ! यह कुटिया किसकी हैं जहाँ वीरानी हैं जहाँ ऐसा प्रतीत होता हैं कि कोई युगों से नहीं आया | कोई पशु पक्षी भी यहाँ दिखाई सुनाई नहीं पड़ता | आखिर क्या हैं इस जगह का रहस्य ? तब महर्षि विश्वामित्र कहते हैं – राम यह कुटिया तुम्हारे लिये ही प्रतीक्षा कर रही हैं | यहाँ बनी वह शिला तुम्हारे चरणों की धूल के लिये युगों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं | राम पूछते हैं – कौन हैं यह शिला ? और क्यूँ मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं | महर्षि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को देवी अहिल्या के जीवन की पूरी कथा सुनाते हैं |

    युगों बीतने के बाद जब महर्षि विश्वामित्र राक्षसी ताड़का के वध के लिये अयोध्या से प्रभु राम और लक्ष्मण को लेकर आये तब ताड़का वध के बाद वे यज्ञ के लिये आगे बढ़ रहे थे तब प्रभु की नजर उस विरान कुटिया पर पड़ी और वे वहाँ रुक गये और उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से पूछा – हे गुरुवर ! यह कुटिया किसकी हैं जहाँ वीरानी हैं जहाँ ऐसा प्रतीत होता हैं कि कोई युगों से नहीं आया | कोई पशु पक्षी भी यहाँ दिखाई सुनाई नहीं पड़ता | आखिर क्या हैं इस जगह का रहस्य ? तब महर्षि विश्वामित्र कहते हैं – राम यह कुटिया तुम्हारे लिये ही प्रतीक्षा कर रही हैं | यहाँ बनी वह शिला तुम्हारे चरणों की धूल के लिये युगों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं | राम पूछते हैं – कौन हैं यह शिला ? और क्यूँ मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं | महर्षि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को देवी अहिल्या के जीवन की पूरी कथा सुनाते हैं |

    कथा सुनने के बाद राम अपने चरणों से शिला पर स्पर्श करते हैं और देखते ही देखते वह शिला एक सुंदर स्त्री में बदल जाती हैं और प्रभु राम का वंदन करती हैं | देवी अहिल्या राम से निवेदन करती हैं कि वो चाहती हैं उनके स्वामी महर्षि गौतम उन्हें क्षमा कर उन्हें पुनः अपने जीवन में स्थान दे | प्रभु राम अहिल्या से कहते हैं – देवी आपकी इसमें लेश मात्र भी गलती ना थी और महर्षि गौतम भी अब आपसे क्रोधित नहीं हैं अपितु वो भी दुखी हैं | अहिल्या के अपने स्वरूप में आते ही कुटिया में बहार आ जाती हैं और पुनः पंछी चहचहाने लगते हैं||                                                                                                                                इस तरह प्रभु राम देवी अहिल्या का उद्धार करते हैं | और आगे बढ़ते हुये जनक कन्या सीता के स्वयंबर का हिस्सा बनते हैं |                                                                                                                                                                         आज के कलयुग समय में इंद्र जैसे अनेक हैं लेकिन प्रभु राम जैसा कोई नहीं हैं | नाही ही प्रशासन एक नारी के चरित्र की रक्षा कर सकता हैं और ना ही न्याय प्रणाली | फिर कैसे भारत भूमि को न्याय प्रिय समझा जाये ? जहाँ न्याय का स्वरूप बदलता नहीं और अन्याय अपने पैर पसारे जा रहा हैं | भारत के पुराणों में नारी का स्थान देवी तुल्य हैं और आज के समय में इसे पैरों की धुल की तरह रौंदा जा रहा हैं | क्या आज का भारत इतना कमजोर हैं कि नारी की अस्मिता की रक्षा के लिये कोई कठोर दंड तक नहीं तय कर पा रहा हैं | यह विषय इतना भयावह रूप ले चूका हैं कि एक नारी अपने ही देश में अपमानित और असुरक्षित महसूस करती हैं | अपने हौसलों की उड़ान में वो अपनों को ही बाधा के रूप में देखती हैं जिस देश की नारी की स्थिती ऐसी हैं वो देश कैसे एक विकसित देश बनने की सोच सकता हैं जबकि उस देश की न्याय प्रणाली उस देश की सबसे छोटी ईकाई समाज के दो स्तंभ पुरुष एवम नारी, में से नारी की नींव को खोखला कर हैं |                     

    Sunday, 12 March 2023

    हिंदी कहानी ज्ञान का भंडार

     महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में 18 दिनों तक चला। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि यह युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था। जहां कौरव धोखा देने और छल कपट में अव्वल थे। वहीं, पांडव धर्म की ओर से लड़ रहे थे। कौरवों ने पांडवों को हराने के लिए छल की रणनीति बनाई। कौरव चाहते थे कि वो युधिष्ठिर को बंदी बनाकर युद्ध जीत लें जिसके लिए उन्होंने सोचा कि वो अर्जुन को युद्ध में उलझाकर चारों भाइयों से दूर ले जाएंगे और फिर युधिष्ठिर को बंदी बना लेंगे।इस रणनीति को अंजाम देते हुए कौरव सेना की एक टुकड़ी ने अर्जुन से युद्ध किया और वो उसे रणभूमि से दूर ले गए। वहीं, गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह की रचना क। यह चक्रव्यूह कैसे तोड़ना है इसकी जानकारी केवल पांडवों को थी। जैसे ही अर्जुन रणभूमि से दूर गया वैसे ही द्रोणाचार्य ने पांडवों को ललकारा। उन्होंने कहा कि या तो युद्ध करो या फिर हाल मान लो। लेकिन नियमों के तहत लड़ना आवश्यक था। पांडवों ने सोचा कि अगर वो युद्ध नहीं करेंगे तो भी हारेंगे और युद्ध करेंगे तो भी हारेंगे। यह देख धर्मराज युधिष्ठिर को कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।इस कशमकश के दौरान धर्मराज युधिष्ठिर के सामने एक युवक आया और उसने कहा कि काकाश्री, मुझे चक्रव्यूह को तोड़ने और युद्ध करने का आशीर्वाद दीजिए। यह और कोई नहीं बल्कि अभिमन्यु था, अर्जुन का पुत्र। अभिमन्यु की उम्र 16 वर्ष की ही थी। लेकिन वह अपने पिता की तरह युद्ध कौशल में निपुण थे। लेकिन युधिष्ठिर ने अभिमन्यु को मना कर दिया। लेकिन अभिमन्यु नहीं माना। उसने कहा कि जब वो अपनी मां के गर्भ में था तब उसके पिता ने उसे चक्रव्यूह तोड़ना सिखाया था। अभिमन्यु ने कहा कि उसे चक्रव्यूह तोड़ना आता है। मैं आगे रहूंगा और आप सब मेरे पीछे-पीछे आइए।अभिमन्यु के सामने युधिष्ठिर ने हार मान ली। सभी युद्ध के लिए तैयार हो गए। जब कौरवों ने अभिमन्यु को रणक्षेत्र में देखा तो वो सभी उसका मजाक उड़ाने लगे। लेकिन जब अभिमन्यु का युद्ध कौशल सभी ने देखा तो सभी हैरान परेशान हो गए। अभिमन्यु ने दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण को मार गिराया और चक्रव्यूह में प्रवेश कर गया। जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया तो राजा जयद्रथ ने उसका द्वार बंद कर दिया।अभिमन्यु दृढ़ता से आगे बढ़ रहा था। ता जा रहा था। अभिमन्यु ने एक-एक कर सभी को मार गिराया। दुर्योधन, कर्ण और गुरु द्रोणाचार्य को अभिमन्यु से हार माननी पड़ी। इसी बीच कौरवों के सभी महारथियों ने अभिमन्यु पर एकसाथ हमला कर दिया। किसी ने अभिमन्यु का रथ तोड़ दिया तो किसी ने इसका धनुष। लेकिन दृढ़ अभिमन्यु रुका नहीं। उसने रथ का पहिया उठाया और युद्ध करना शुरू कर दिया। अभिमन्यु अकेला लड़ता रहा। लेकिन कब तक। आखिरी में सभी ने मिलकर अभिमन्यु की हत्या कर दी। जब अर्जुन को यह बात पता चली तो अर्जुन ने जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा ली। आज कर्ण और अर्जुन से भी पहले शूरवीर अभिमन्यु का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है।इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी। '

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    Saturday, 4 March 2023

    ज्ञान का भंडार अरविंद कुमार यादव 7380कबीर साहब के दोहे

     कबीरा सोया क्या करे, उठी न भजे भकबीरा सोया क्या करे, उठी न भजे भगवान ।

    जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥

    कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी ! तू सोता रहता है (अपनी चेतना को जगाओ) उठकर भगवान को भज क्यूंकि जिस समय यमदूत तुझे अपने साथ ले जाएंगे तो तेरा यह शरीर खाली म्यान की तरह पड़ा रह जाएगा ।


    शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।

    तीन लोक की सम्पदा, रही शील मे आन ॥

    जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है ।

    Friday, 3 March 2023

    ज्ञान का भंडार अरविंद कुमार यादव 7380

     महाभारत महा काव्य के सबसे प्रसिद्ध पात्र जिन्हें हम भीष्म पितामह के नाम से जानते है. वास्तव में इनका नाम देवव्रत था और वे महाराज शांतनु एवम माता गंगा के पुत्र थे. गंगा ने शांतनु से वचन लिया था, कि वे कभी भी कुछ भी करे, उन्हें टोका नहीं जाये, अन्यथा वो चली जाएँगी. शांतनु उन्हें वचन दे देते हैं. विवाह के बाद गंगा अपने पुत्रो को जन्म के बाद गंगा में बहा देती, जिसे देख शांतनु को बहुत कष्ट होता है, लेकिन वे कुछ नहीं कर पाते. इस तरह गंगा अपने सात पुत्रो को गंगा में बहा देती, जब आठवा पुत्र होता हैं, तब शांतनु से रहा नहीं जाता और वे गंगा को टोक देते हैं. जब गंगा बताती हैं कि वो देवी गंगा हैं और उनके सातों पुत्रो को श्राप मिला था, उन्हें श्राप मुक्त करने हेतु नदी में बहाया, लेकिन अब वे अपने आठवे पुत्र को लेकर जा रही हैं, क्यूंकि शांतनु ने अपना वचन भंग किया हैं.कई वर्ष बीत जाते हैं, शांतनु उदास हर रोज गंगा के तट पर आते थे, एक दिन उन्हें वहां एक बलशाली युवक दिखाई दिया, जिसे देख शांतनु ठहर गये, तब देवी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने शांतनु से कहा, कि यह बलवान वीर आपका आठवा पुत्र हैं इसे सभी वेदों, पुराणों एवम शस्त्र अस्त्र का ज्ञान हैं, इसके गुरु स्वयं भगवान परशुराम हैं और इसका नाम देवव्रत हैं जिसे मैं आपको सौंप रही हूँ. यह सुन शांतनु प्रसन्न हो जाते हैं और उत्साह के साथ देवव्रत को हस्तिनापुर ले जाते हैं और अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते हैं, लेकिन नियति इसके बहुत विपरीत थी. इनके एक वचन ने इनका नाम एवम कर्म दोनों की दिशा ही बदल दी


    bhishma pitamahभीष्म पितामह की जयंती को ‘भीष्म अष्टमी’ के नाम से भी जाना जाता है। लोक मान्यता के अनुसार ऐसा माना जाता है कि बाणों की शैय्या पर लेटे लेटे तकरीबन 58 दिनों के बाद ही भीष्म पितामह ने अपनी इच्छा से अपने प्राण त्यागे थे। भीष्मा पितामह की जयंती को हिंदू धर्म में एक शुभ दिन माना जाता है। लोग इस दिन एकोदिष्ट श्राद्ध करते है। इसके साथ ही अपने घर के आसपास स्थित नदी या फिर तालाब के पास जाकर के तर्पण की विधि को भी पूरा करते हैं और अपने पूर्वजों की आत्माओं की शांति की कामना करते हैं। इस दिन गंगा में भी कई लोग स्नान करते हैं और भगवान से मृत्यु के बाद मोक्ष की कामना करते हैं। भीष्म पितामह की जयंती पर लोग हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में मौजूद भीष्म कुंड में जाकर के स्नान करते हैं और वहां पर अपने-अपने देवी देवता की पूजा करते हैं।